क्या बयां करु मैं
क्या बयां करु मैं ,एक एहसास जो छुपा है उस कली की तरहजिसे चाहत है खिलने की लेकिन डर है उसे उस तूफ़ान का
जो उसे उसके पौधे से दूर ना ले जाए।
या मेरी चंचलता ,जो उस सूरजमुखी की तरह है
जो खुद को सूरज की तरफ जाने से रोक तो नहीं पाता
और फिर अपनी वजूद भी खो देता है।
क्या बयां करू मैं ,अपनी नादानियाँ जो उस पंछी की तरह है
जिसने खुद को दाने की लालच में जाल में फंसा तो लिया है
लेकिन वँहा से निकलना नहीं जनता हो।
क्या बयां करू मै एक सच्चाई जो दफ़न है कंही दूर
किसी वीरान जंगल में ,जिसका पता मै खुद जानना नहीं चाहती
या फिर एक झूठ जो मेरे खून मेरे जहन में समा चूका है।
-ओजस्विता