Sunday, 19 February 2017

                                     बेबस बचपन 

बात मार्च २०, 2014 की है। मैं अपनी माँ के साथ बाजार गयी हुई थी। हमे बैग भी खरीदना था। वहाँ  जाकर मैंने जो देखा सारी रात उसके बारे में सोचती रही। एक 5 से  6 साल का बच्चा मशीन चला रहा था। उस बच्चे  की उम्र छह वर्ष से ज्यादा ना होगी। उसके शरीर पर एक फटी शर्ट और एक पेंट थी। उसके हाथ -पाँव भोजन की कमी से इतने  पतले हो रखे थें मानो वो बच्चा  कुपोषण का शिकार हो। उसके चेहरे पर एक ऐसी उदासी थी जिसका मैं वर्णन नहीं कर सकती। वह चाह कर भी नहीं है हँस सकता था। उसकी दशा देखकर मेरे आँखों में ऑंसू आ  गएँ  जिन्हें मैं रोक नहीं पा रही थी।
आखिर क्यों वह बच्चा  स्कूल जाने की उम्र में दुकान पर आ रहा था ? उसके हाथों में पेंसिल की जगह सुई क्यों थी ?
उसके घर के  हालात क्या थें जो एक छह वर्ष के बच्चे की बचपन छीन रहा था।क्या उसके पिता की तबियत ख़राब थी या वो नहीं थे या फिर उन्हें  परिवार की  फ़िक्र नहीं थी?
उस माँ का दिल दहला ना होगा जब उसके बच्चे ने और बच्चे को स्कूल जाते देख स्कूल  जाने की इच्छा जाहिर की होगी?क्या दूकान पर सजे खिलोने देखकर उसका मन कभी मचला  ना होगा?
मैंने बहुत सोचा की उस बच्चे की मदद  कैसे की जाये पर मुझे कुछ समझ नहीं आया। आखिर कर भी क्या सकती थी मैं उसके लिए सिर्फ कुछ पैसे दे सकती थी परन्तु उसकी गरीबी -लाचारी दूर नहीं कर सकती थी। वह एक अनोखा, मजबूर और बेबस बचपन था।
सिर्फ एक वही बच्चा नहीं हजारो बच्चे इस देश में बाल श्रम करने पर मजबूर हैं। क्या यहीं है हमारे सफल भारत का भविष्य?क्यों नहीं हमारा समाज जागरूक होता है?क्यों नहीं रोके जाते हैं  प्यारे -प्यारे मासुम बच्चे काम पर जाने से ?आखिर कब तक बाल श्रम की समस्या हमारे देश में रहेगी। वे बच्चे मजबूर तो होंगे वर्ना किसे शौक है पढ़ने और खेलने की उम्र में मजदूरी करने का।
उस बच्चे की जगह खुद रख कर देखो उसकी समस्या खुद समझ आ जाएगी।

-ओजस्विता 

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