ना जाने ऐसा क्यूँ लगता है तुम मेरे होकर भी कभी मेरे थे ही नहीं…
तुम पर मैं हक़ भी नहीं जमा सकी कभी.
तुम्हारे साथ करना बहुत कुछ चाहती थी पर कर न सकी.
जैसे तुम्हारे कंधों पर सर रखकर कुछ बातें करना,
तुम्हारा हाथ थाम कर कुछ कदम चलना,
तुम्हारे साथ बिताए पल को तस्वीर में कैद करना चाहती थी,
तुम्हारे साथ हँसना और तुम्हें हँसाना चाहती थी.
तुमने तो इज़ाज़त ही नहीं दी कभी कि मैं खुलकर तुमसे थोड़ा हक़ ही माँग लूँ.
तुमने तो इंतजार का भी हक़ नहीं दिया मुझे.
अगर मैं रूठी कभी तो तुम्हें कभी फ़र्क पड़ा ही नहीं. ऐसे में दिल खुद से ये पूछता है कौन हूँ मैं तुम्हारे लिए.
शायद हमारा कुछ रिश्ता ही नहीं… क्योंकि तुमने कभी इसे निभाया ही नहीं…
बस जरूरत थी कुछ वक़्त की शायद…
जब ये सोचकर दिल टूट सा गया और दिमाग थक सा गया तो समझ आया मेरा तुम्हारी ज़िंदगी से चले जाना ही बेहतर है।
जा रही हूँ मैं तुम्हारी ज़िंदगी से कुछ इस कदर कि अब कभी तुम्हें नज़र नहीं आऊँगी,
तुम ढूँढना भी चाहोगे तो मैं इस भीड़ में खो जाऊँगी,
पर तुम मुझे ढूँढोगे क्यूँ अगर ढूँढना होता तो कभी मुझे खुद से अलग नहीं करते।
चलो आख़िरी अलविदा मैं करती हूँ अब, खुश रहो तुम, आबाद रहो, जाते जाते ये दुआ भी मैं करती हूँ।
-Ojasweeta
No comments:
Post a Comment